कुटीर उद्योग :

यह गाँव पूर्ण रूपेण कृषि पर निर्भर है कोई उद्योग धन्धा नहीं है। कुटीर उद्योग के रूप में पहले कोल्हू, कुम्हार का चाक, पत्तल बनाने का कार्य, मूज से रस्सी बनाने का कार्य, बढई गिरि, सोनारी का कार्य, जुलाहों द्वारा कपड़ा बुनने का कार्य होता था। जो अब समाप्त हो गया है। मूज से रस्सी बनाने, कुम्हार द्वारा मिट्टी के बर्तन बनाने तथा धारिकारो द्वारा बांस से खंचिया, आदि बनाने का कार्य थोड बहुत हो रहा है। प्लास्टिक की गिलास, पत्तल, प्लेट आदि बाजार में उपलब्ध होने के कारण कुम्हार का उद्योग प्रभावित हुआ है। डीजल तथा बिजली के इंजन द्वारा तेल की पेराई होने से कोल्हू समाप्त हो गये हैं। अब कोल्हू का तेल खोजने पर भी नहीं मिलता। घर में धान कूटने, चकरी से दाल दलने, जाता में आटा पीसने का कार्य तो बिल्कुल समाप्त हो चुका हैं।

पहनावा :

हमारे पूर्वजों के समय में कपड़ा का बहुत अभाव था अंग्रेजो के शासन के समय इस देश से रूई लन्दन चली जाती थी। वहाँ से कपड़ा बनकर आता था। स्थानीय रूप से कुछ जुलाहे मोटिया कपड़ा मारकीन बनाकर बेचते थे। मुख्य रूप से मारकीन ही की धोती, कुर्ता, गमछा व बांहदार बनियाइन तैयार होती थी। इसी का लंगोटा भी बनता था। आज सूती कपड़ा देखने को नहीं मिल रहा है या है भी तो बहुत महंगा। अब बनावटी कपड़ा सब लोग पहनने लगे हैं। पहले स्थानीय रूप से तैयार किया हुआ गाँव के मोची का चमड़े का जूता लोग पहनते थे। बाजार में केवल लुधियाना जूता मिलता था जो विवाह आदि अवसरों पर पहना जाता था। आज की तरह हवाई चप्पल तथा फैन्सी जूते नहीं मिलते थे। चप्पल की जगह पर काठ की बनी कठिनई जिसमें रस्सी का फीता तथा खड़ाऊँ लोग पहनते थे। ज्यादातर लोग नंगे पैर रहते थे।