पं0 दुल्लह राय शर्मा के वंशजों की प्राचिन तथा अर्वाचिन अवस्थाओं का वर्णन :

सहजमल राय के तीन पुत्र भीषमदेव, भमदेव, व वहोरिक राय हुये। वहोरिक राय के छः पुत्र नागमल राय,दुल्लह राय,गनेश राय,वेरिसाल राय,इनलसी राय व सावलदेव राय हूये । रेवतीपुर में वहेारिक राय का बहुत बड़ा परिवार हो गया। खेती ही मुख्य धन्धा था।
दुल्लह राय का जन्म सन् 1690 के लगभग हुआ था। यह 6 भाई थे । कालान्तर में परिवार में बटवारा हो गया । गनेश राय का परिवार रामपुर मे जाकर बसे। अन्य लोग भी इधर -उधर जाकर का बसने लगे। दुल्लह राय के चार पुत्र हुये हिरसिंह राय, शिरसिह राय, मानसिह राय व गम्भीर राय हुये। इनमे गम्भीर राय सबसे छोटे थे। वे अपने तीनों भाइयों का साथ छोडकर मुहम्मदाबाद जाकर बसे गये। रेवतीपुर में उन्हें जमीन से कोई हिस्सा नहीं मिला। हिरसिंह राय सिरसिंह व मानसिंह राय जब बड़े हो गये तो इन लोगो नें रेवतीपुर से पुरव गंगा के दियारे मे जाकर गो पालन शुरू किया । इन तीनो भाईयों मे मानसिंह राय सबसे हृष्ट पुष्ट निर्भीक व पहलवान थे । 6 फुट से अधिक लम्बाई गौर बदन अत्यधिक मिलनसार थे। उन्होने रेवतीपुर मे बसे अन्य जातियो को साथ लेकर गंगा के दियारे में आकर डेरा डाले। उस समय 50 से अधिक गाय रखतें थें। दियारे में गाये को चराकर केवल खुले मैदान मे रात को गायों को बाध दिया जाता था।
वीरपुर के कयश्य गोत्रीय भुमीहार ब्राह्मणों का इस दियारे पर अधिकार था। मानसिंह मिलनसार थें उन्होंने वीरपुर वालो से अनुमति लेकर 500 बीधा भूमि धरमपुरवा के निकट खेती योग्य बनाया। इस कार्य मे अन्य जाति के लोगो नें इनका साथ दिया। सन् 1755 के लगभग हिरसिंह राय व सिरसिंह राय का परिवार भी आ गया। कुछ दिनो तक शेरपुर गाँव के पुरवा पर डेरा डाले और खपरैल का मकान बनाये। लेकिन बाढ़ से घर हर साल बह जाता था। बाद में ये लोग वर्तमान शेरपुर खुर्द में जाकर बसे । यहाँ पर तीन भाईयों के परिवार का विस्तार हुआ। इस पुरवे का नाम शेरपुर रखा गया क्योकि सकराडीह के निकट शेरपुर नामक स्थान से आये थे। सन् 1745 के लगभग पं0 दुल्लहराय शर्मा का देहावसान हो गया था।
शेरपुर का गंगा के दियारे रेवतीपुर के पुरवी छोर से वीरपुर तक उत्तर में तमलपुरा गाँव से पुरब आमद्याट तक लगभग 14 किमी0 क्षेत्र में फैला था। यह पुरी भुमि कटीली, झाड़ियाँ, मूज, कास आदि से आच्छादित थी। इसमें जंगली शुअर, हिरन, नीलगाय तथा जहरीले सांप रहते थे। हमारे पूर्वजों में पहले वीरपुर गाँव पश्चिमी धरमपुरवां के निकट कुछ भुमि साफ करके खेती योग्य बनाये । रेवतीपुर से पंडित दुल्लह राय का परिवार 1765-1780 तक शेरपुर मे आकर बस गया था। पहले शेरपुर खुर्द में कच्चा मकान बनाये। कच्चा कुंआ खोदकर पानी पीने की व्यवस्था किये। जो बाद में 1800 के लगभग लाखौरी ईटों को पकाकर पक्का कुंआ बनवाये।इसी कुयें के समीप शिव जी का लिंग स्थापित करके पुजन करने लगें। वह कुआँ तथा वह शिवलिंग आज भी हमारे पुर्वजों की आस्था का प्रतीक मौजूद है। उस समय तक तीनो भाईयो के परिवाार मे बटवारा हो गया था तीनों भाईयों का देहावसान सन् 1780 से 1795 तक हो चुका था।
शेरपुर खुर्द से दक्षिण दियारे मे ऊँची भूमि देखकर तीनो भाईयो का परिवार सन् 1785 के लगभग आकर बसना प्रारम्भ कर दिया था जो बाद मे बड़ी बस्ती हो गई। शेरपुर कलाँ के नाम संे पोस्ट आफिस में पता दर्ज हुआ। इस प्रकार हमारे पुर्वजों की लगभग चार पिढी़ खेती योग्य बनाने, मिट्टी खोदकर खपरैल का घर बनाने में समाप्त हो गई। गाँव के तरफ जो गड़ही दिखाई पड़ती है वह हमारे पुर्वजों के कठोर श्रम की गवाह है । कुछ लोग शेरपुर से सेमरा में जाकर डेरा डाले और वहाँ मकान बना लिये । शेरपुर के दियारे की भुमि को खेती योग्य बनाने में भूमिहार ब्राह्मणो के साथ साथ ब्राह्मण, कुर्मि, गड़ेरिया, मल्लाह, कमकर, अहिर गौड़,कोहार,लोहार हरिजन आदि जातियो के लोग भी मद्द किये लेकिन इन लोगों ने भूमि में कोई हिस्सा नही लिया। कालान्तर में ब्राह्मणों को दान में तथा अन्य जातियो को उनकी सेवा के बदले कुछ भूमि दी गयी। सन् 1952 में जमींदारी समाप्त होने के पश्चात सिकमी में भूमिहार ब्राह्मणों की जमीन अन्य जातियों को कुछ न कुछ मिल गयी। सन् 1880-85 में शेरपुर की भूमि का बन्दोबस्त हुआ था। सन् 1910 में शेरपुर की पूरी भूमि तीनों पट्टी में तकसीम हो गयी।
इसके पूर्व अकबर बादशाह का बन्दोवस्त लागू था जिसे टोंडरमल बन्दोंबस्त के नाम से जाना जाता था। लगान अच्छी किस्म की भूमि व मध्य किस्म की भूमि के अनुसार निर्धारित होती थी। भूमि लट्ठा और कड़ी में नापी जाती थी । लगान 10 साल के औसत पैदावार और औसत मुल्य पर निर्धारित होती थी। इस प्रकार औसत पैदावर का 1/3 भाग लगान के रूप में वसुल होती थी । लगान न जमा करने के कारण इस गाँव की भूमि सन् 1802 ई0 मे नीलाम होने जा रही थी। लेकिन परशुराम पट्टी कें चैधरी घराने के कालीचरण राय ने लगान जमा करके नीलामी से बचाया था । दूसरी बार सन् 1812 ई0 में यहाँ जमीन नीलामी हूई थी लेकिन 09 मई 1819 की नालामी रद्द हो गयी। बड़े थोक करके शेरपुर व रेवतीपुर तालुक को 35 मौंजो में कर दीया गया। जमीन के बटवारे के आधार पर शेरपुर 15166 रू0 3 आना 3 पाई तथा रेवतीपुर 9834रू0 12 आना 9 पाई कुल 25001 रू0 का मालगुजारी देने लगे। कुल भुमि का 29843 एकड़ थी । शेरपुर की भूमि तीनो भईयो के बराबर हिस्से में बटवारा हुआ था।